आंखे बूंद पर सिमटी रहती हैं, वे सागर नहीं देख पाती, हिमालय के शिखर को नहीं देख पाती और गंगा के उस उद्गम प्रवाह को भी नहीं देख पाती, जिसका साक्षी हरिद्वार है। सागर गौरीशंकर और गंगा जलबिन्दु के ही तो विराट रूपकार हैं, लेकिन हमने आंखों की परिधि को सीमित कर लियाहम व्यंजना में नहीं जा पाए। जाने कब से हमारी व्यंजना की ओर जाने की यात्रा पर विराम लग गया। व्यंजना में नहीं जा पाए इसलिए 'लक्ष्मी' केवल समृद्धि की देवी-भर रह गई। केवल धनिकों की पूज्या के रूप में उनकी वंदना होती रही। उन्हें सोने की चकाचौंध में आवेष्टित कर दिया गया और परिणाम यह हुआ कि दीपोत्सव पर दीये तो अमावस की रात में जगमगाने लगे, लेकिन उनकी उजास से वह अंधेरा नहीं छंट पाया, जिसे सदैव के लिए समेट देने के संकल्प के रूप में 'लक्ष्मी' का आविर्भाव हुआ था और जिसके इसी रूप की हमारे पुरखों ने अर्चना की थी।
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'ऋग्वेद' के 'श्रीसक्त' में लक्ष्मी के सत्तर नाम हैं, इनमें वे हिरण्यवर्णा तो हैं ही, लेकिन हमारे आदि ऋषि ने भूदेवी, ज्वलंती, हरिणी, मनोज्ञा और लक्ष्मी कहकर उनकी स्तुति की है। अर्थात् वे धरती की देवी हैं, दीपमयी हैं, सभी का दुख हरने वाली, हरेक के सुख-दुःख को जानने वाली और स्वजनों के उद्धार का उपाय सोचने वाली हैं। लक्ष्मी का यही स्वरूप उनका सच्चा स्वरूप है।
दीपावली के समय बाजारों में बिकने वाली मिट्टी की वह ग्वालन, जिसके दोनों ओर दीप गढ़े होते हैं, सच्ची दीपावली है, जिससे हर निर्धन का धर दीपपर्व पर उजास से दमक जाता है।
लक्ष्मी अन्नपूर्णा है। हमारे पुरखे दीपावली को कौमुदी पर्व के रूप में मनाते थे। मथुरा से मिले एक शिल्प में उन्हें अन्न की बाली लिए उत्कीर्ण किया गया है। लक्ष्मी माता है और उनका यही सबसे पुराना स्वरूप शिल्प में मिला है। यह मिट्टी का बना टेराकोटा शिल्प है, जो महाराष्ट्र के तेर नामक स्थान से सातवाहन काल का मिला है, जो ईसा से दूसरी-तीसरी सदी पूर्व का है। तो कैसे कहें कि लक्ष्मी सिर्फ वैभव की देवी हैं, समृद्धियों की पूज्या है और उनकी प्रतिष्ठा केवल सोने के बीच है?
लक्ष्मी जन-जन की देवी है, जिन्हें लोक के कण-कण ने गढ़ा है। उन्हें वर्ग और वर्ण में बांधना उनकी व्यंजना के साथ न्याय नहीं है। लक्ष्मी भूदेवी है, अन्नपूर्णा है और मां है, जिनमें सब रूप समा जाता है। मान्यता है कि लक्ष्मी विरागी या अनासक्ति की आराध्या नहीं जिसे संसार से ही विरक्त हो जाए। उसके लिए लक्ष्मी के पर्व का क्या अर्थ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए राग और विराग आसक्ति और अनासक्ति के अर्थ जानने होगें।
अनासक्ति और विराग क्या है? वे तो आसक्ति और विराग से ही जन्में हैं। मूल शब्द तो आसक्ति है, राग है ऐसा नहीं है कि उजास का उत्सव केवल आसक्तों का ही हो, उजास का सार्थक उसत्व तो सन्यासी मनाता हैं एकान्त में।
उजास की व्यंजना में सच्चा सन्यासी जाता है वह स्वयं आलोकित हो उठता है और फिर पूरे संसार को जगमग कर देता है। वह आराधना करता है लक्ष्मी के मातृस्वरूप की, उनके उस शक्ति रूप की, जिसे लक्ष्मीतंत्र में 'महाविष्णु की अहंता शक्ति' कहा गया है।
हम आसक्ति और राग की व्यंजना में जाएं तो इतिहास के द्वार से उस सन्यासी शंकर को घर लौटते हए देखेंगे, जो अपनी मां को दिया गया वह वचन निभाने लौट आया था कि उनके अंतिम समय का वह साक्षी होगा और वही सौंपेगा उन्हें पंचतत्त्व में। हम देखेंगे बुद्ध को अजंता की मनोरम भित्तियों पर कि वे अपने महल में खड़े हैं अपनी पत्नी यशोधरा और अपने पुत्र राहुल के सामने सन्यासी के वेश में और यशोधरा अपने पुत्र का दान अपने पति को दे रही है, ताकि वह भिक्षु बन सके।